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Posted on July 20, 2013 by rohan

Filed in 'Book Reviews'.

अपनी अपनी पसंद (पुस्तकावलोकन)

शीर्षक:   अपनी अपनी पसंद

लेखक: विजयदान देथा

चित्रांकन: अनिता हाशेमी मोघद्दम

अनुवाद: रंजना शुक्ला

प्रकाशन : कथा

मूल्य २२५ रू.

यह पुस्तक मनोहर है, देखने और पढ़ने में भी। बच्चों और बड़ों दोनों को यह प्रिय लगती है। कहानी अनुवादित होने पर भी भाषा की सहजता के कारण कहीं भी अनुवादित सी नहीं लगती। कहानी ललित गति से आगे बढ़ती है। भाषा अत्यंत सरल और सरस है।

पुस्तक की विषयवस्तु साधारण होने पर भी बड़े सरस और आसक्ति पूर्ण रूप से अभिव्यक्त की गई है। लोग किस प्रकार परिसरों के आदी हो जाते हैं? कैसे आदतों के दास होते हैं? इसे मनोहर ढंग से बताया गया है।इस तरह यह पुस्तक अलग स्तर पर भी पढ़ी जा सकती है। पुस्तक का यह गुण पुस्तक के महत्व को बढ़ाता है।

चित्रांकन आसक्तिपूर्ण है। इसमें उपयोग किए गए रंग भी आकर्षक हैं। अधिकांशतः हर पन्ने पर लिखे हुए कहानी के भाग के अनुसार चित्र मोहक बने हैं। पर कहीं कहीं पन्ने पर दिए हुए विवरण से चित्र भिन्न हैं। उदाहरण के लिए – प्रथम पन्ने पर लिखा गया है: “एक समय की बात है,  कहीं एक ताज़े पानी की झील हुआ करती थी। और उस झील के किनारे थी एक मछुआरे की झोपड़ी।”

लेकिन चित्र में मछुआरे की झोपड़ी झील के किनारे पर नहीं है। उसके चारों तरफ़ पानी दिखाई देता है। तृतीय पन्ने पर कहा जाता है कि झमा झम बारिश होने लगी। चित्र में बारिश दिखाई होती तो चित्र अर्थपूर्ण होता। परंतु ऐसा नहीं हुआ है।

अंतिम पन्ने पर कहा गया है कि मछुआरिन अपनी मछलियों की टोकरी मुँह पर ढ़क कर सो गई। चित्र में यह टोकरी मछलियों से भरी दिखाई गई है। लेकिन उससे पहले ही कहानी में कहा गया है कि मालिन ने मछुआरिन की टोकरी कमरे से बाहर रख दी थी। तब तक मछुआरिन की सारी मछलियाँ बिक चुकी थी। फिर उसकी खाली टोकरी मछलियों से कैसे भर गई?

पुस्तक के अंत में दो पन्नों पर भिन्न भिन्न जानकारियाँ दी गई हैं। पुस्तक की कहानी से इनदोनों का कोई संबंध नहीं है। अतः यह जानकारी व्यर्थ साबित होती हैं। इसके अतिरिक्त यदि मछली, जाल, बाढ़, नदी या बाग के बारे में कुछ बताया होता तो अधिक अर्थ पूर्ण होता।

पुस्तक का मूल्य २२५ रू. है। यह आम लोगों के लिए बहुत महंगी होती है। अतः इतनी अच्छी पुस्तक से सामन्य लोग वंचित रह जाएँगे।

हाथी का वज़न कैसे करें?

शीर्षक:  हाथी का वज़न कैसे करें?

लेखक: गीता धर्मराजन

चित्रांकन: वेन सू

प्रकाशन : कथा

मूल्य १७५ रू.

अनेक भारतीय भाषाओं में प्रचलित यह लोककथा बच्चों को कौतूहल से भर देती है। परंतु यही कथा इस पुस्तक में और भी सुंदर रूप से कही गई है। कहानी की भाषा सरल और सरस है। कहानी सुललित गति से आगे बढ़ती है। अंत तक  बच्चों की आसक्ति बनाए रखती है।

कहानी में भिन्न भिन्न वृत्ति वाले हाथी को तोलने के लिए करने वाले उपाय दिलचस्प हैं।

पुस्तक के चित्र सरल होते हुए भी सुंदर हैं। राजा के सभासदों की वेश भूषा से पता चलता है कि भिन्न भिन्न देश के लोग वहाँ उपस्थित हैं। हर पन्ने पर दिए गए विषय के विवरण से संबंध रखने वाले चित्र अर्थपूर्ण हैं।

कहानी के अंत में लीलावती का परिचय उचित है। परंतु अन्य महिलाओं का परिचय इस उम्र के बच्चों के लिए गंभीर एवं जटिल बनता है। आर्किमेडिस का परिचय भी पुस्तक केलिए ठीक बैठता है। अंत में दिया हुआ प्रयोग प्रशंसनीय है। परंतु उसमें एक दोष है। तीसरे चित्र में जब मिट्टी की गेंद को कटोरे के पानी में डुबाया जाता है तो कटोरे के पानी का स्तर बढ़ जाना चाहिए। चित्र में ऐसा नहीं होता। यह एक बड़ा दोष है।

पुस्तक का मूल्य १७५ रू. है। मेरे विचार में यह अधिक है। इस कहानी के भिन्न रूपांतर अन्य प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित हुए हैं, और उनका मूल्य काफी कम है।

पालकीवाले

शीर्षक: पालकीवाले

लेखक: सरोजिनी नायडू

चित्रांकन: इंदु हरिकुमार

प्रकाशन : कथा

मूल्य: १४५ रू.

पालकीवाले पुस्तक के चित्र अत्यंत आकर्षक हैं। परंतु इसका विषय आज कल के बच्चों की समझ के परे है। निस्संदेह सरोजिनी नायडू की रचना उत्तम है। पर प्रकाशक तथा चित्रकार को याद रखना चाहिए कि समय की दृष्टि से यह रचना बहुत पुरानी है। अब हमारी संस्कृति में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। अतः आज कल के बच्चे इसका पूरा मज़ा उठाने में असमर्थ रह जाते हैं।

पालकी, जो आज कल कहीं दिखाई नहीं देती, का बोध कराने के लिए कम से कम पुस्तक में पालकी का नैज चित्र होना अत्यावश्यक है। स्टैलैज़्ड चित्र यह काम नहीं कर सकते।

पुस्तक सुंदर तथा भारत की कोकिला सरोजिनी नायडू की लिखी होने पर भी बच्चों के लिए पूर्ण रूप से निष्फल है।

जादूई नगरी

शीर्षक: मिमी की जादूई नगरी

लेखन और चित्रांकन: क्वे लिंग शू

प्रकाशन : कथा

मूल्य: १४५ रू.

यह पुस्तक मैने कईं बच्चों और बड़ों को दिखाई। सब के सब बच्चों ने पुस्तक के दो तीन पन्ने पलटकर  बिना पढ़े अलग रख दिए। किसी को भी यह पुस्तक अच्छी नहीं लगी। इसका कारण है इसके गूढ़ लगने वाले अस्पष्ट चित्र।

कहानी बुरी नहीं है। गहरे रंगों के धुँधले चित्रों के कारण पुस्तक अत्यंत अनाकर्षक हो गई है। कहानी के पात्रों का भी पता नहीं चलता। चित्र में उन्हें ध्यान लगाकर ढूँढना पड़ता है। कहानी के अन्य अच्छे गुण भी अवगणना के शिकार हो जाते हैं।

गटिला

शीर्षक: गटिला

लेखन तथा चित्रांकन: लीसा डाएस नोरोन्हा एवं अंजोरा नोरोन्हा

पुस्तक का मूल्य १७५ रू.

“गटिला” कहानी की पुस्तक आकर्षक और सुंदर है। इसके रंग और चित्र दिलचस्प हैं। भाषा सरल है। इसमें बताई गई नीति भी उचित है और सरल रूप से बताई गई है। पुस्तक के अंत में दिए गए कार्य कलाप बच्चों के लिए आसक्तिपूर्ण और उचित हैं।

पुस्तक का मूल्य १७५ रू. है जो अधिक लगता है। इस कहानी के कई रूपांतर प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।

मेहर गढ़ की थंगम

शीर्षक: मेहरगढ़ की थंगम

लेखक: गीता धर्मराजन

चित्रांकन: मृणालिनी सरदार

प्रकाशन : कथा

मूल्य: १७५ रू.

आकर्षक रंगों के स्टैलैज़्ड चित्रों के साथ पुस्तक आंखों के लिए उत्सव है। परंतु पुस्तक के कई भाग अपने आप समझने में बच्चों को दिक्कत हो सकती हैं। विषय वस्तु हज़ारों वर्ष पुरानी होने के कारण दीर्घ पृष्ठ्भूमि की आवश्यकता है। समसामयिक  विषयों के विवरण के बिना समझना कठिन है।

चित्र सुंदर होने पर भी स्टैलैज़्ड होने के कारण बच्चों को विषय स्पष्ट नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए: थंगम मोहर पर क्या काम कर रही थी? या फिर, कुल्लन मामा का चाक कहाँ है? और वे उस पर कैसे काम करते हैं?

अंत में “थंगम से मिलो” भाग में वृत्तों में उल्लिखित विषय बहुत दिल्चस्प और जानने योग्य हैं। लेकिन ये विषय पुस्तक में चित्रित थंगम से मेल नहिं खाते। उदाहरण के लिए: थंगम का घर आरामदायक है, थंगम दांतों के डाक्टर के पास जाती थी, उसके घर में भंडारण हुआ करता था, घर में गुसलखाना था, माँ घर को सजाय करती थी, आदि।

मन में प्रश्न उठता है कि इस पुस्तक का उद्देश्य क्या है?

मेहरगढ़ के बारे में सरल तथा सरस रूप से जानकारी देना?

केवल रंगीन स्टैलैज़्ड चित्र प्रस्तुत करना?

या फिर, चित्र और पठ्य को जोड कर अर्थ समझने में खुद बच्चों को अपना सिर खपाने के लिए मजबूर करना?

यह सबसे विषादनीय विषय है कि पुस्तक बच्चों को मेहरगढ़ की असली गंध नहीं दे सकती। इसके लिए पुस्तक के अंत में दिए गए विषयों का पुस्तक में उपयोग करना अति आवश्यक है जो नहीं हो पाया है। थंगम नाम भी मेहरगढ़ से मेल नहीं खाता।

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